यदि पसंद है तो हमसफर बनें

30 August, 2008

ओ... ऊपर वाले कर रहम

हर तरफ हाहाकार, चित्कार
भूख से तड़पते लोग,
खुद को बचाने की तड़प
अपनों को बचाने की जद्दोजहद,
पहले खुद को बचाएं या उनको
या सुनें अपने अंतरमन को,
हर तरफ है तड़प।

गुम हुईं बच्चों की किलकारी
उनके रोने से कांपता है दिल
पर अब तो वो रोते भी नहीं
सिसकियों में जो बदला रुदन
कई दिनों से खाया नहीं कुछ
दूध भी नहीं उतर रहा
बूंद बूंद कर पेट भरे मां
हर जगह हाहाकार मचा।

चारों ओर बस एक ही गूंज
'भूखे हैं खाना दे दो'
'सहा नहीं जाता है अब'
'कोई तो बचा लो हमको'
बचाने वालों की भी, आंखें हैं नम

ऊपर वाला भी रो रहा है
उसके रोने से बरपा है क़हर
हम रो रहे हैं
सिसक रहे हैं
अब तो कर, ओ ऊपर वाले
हम पर रहम।
आपका अपना
नीतीश राज

29 August, 2008

“...तो कोई बात थी”


तेरी जुल्फ मेरे शयानों पर होती
तो कोई बात थी।
तेरा हाथ, मेरे हाथ में होता
तो कोई बात थी।


तुम कदम चंद कदम साथ चली होती
तो कोई बात थी।
मयखाना ना सही, तुम साथ होती
तो कोई बात थी।

आज अकेला चला हूं, गर तुम साथ चलती
तो कोई बात थी।
आपका अपना
नीतीश राज

फोटो साभार-गूगल

27 August, 2008

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?



अक्सर वो अपने से प्रश्न करती,
क्यों, वो कर्कसता को
उलाहनों को, गलतियों को
झिड़की को सहन करती है।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?

जो कि सबकी निगाहों में
अपने पढ़े जाने का,
शरीर के हर अंग को
साढ़ी और ब्लाउज के रंग को
वक्ष के उभार,
उतार-चढ़ाव को
कूल्हों की बनावट को
होठों की रसमयता को
आंखों की चंचलता को,
क्या कोमल गर्भ-गृह का
सिर्फ श्रृंगार है।

जिसे बीज की तैयारी तक
कसी हुई बेल की तरह बढ़ना है,
फिर उसके, जिसको जानती नहीं
अस्तित्व में अकारण खो जाना है,
कोढ़ पर बैठी मक्खी की तरह।


जिस के ऊपर
फुसफुसाहट सुनती
वो नयन-नक्स
वो देह की बनावट
बोझ जो उसका अपना
चाहा हुआ नहीं,
किसी और की दुनिया
के दर्जी की गलत काट के कारण,
उसके सीने पर चढ़ाया गया
अक्सर वो खुद से प्रश्न करती।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?



आपका अपना
नीतीश राज

24 August, 2008

“मैं”



क्या करूं की दिशाहीन सा चलता मैं
कभी लगे की रास्ता मिल गया
पर तभी रास्ते से भटकता, मैं।


रास्ते में मिले कभी पत्थर
तो कभी मिले फूल,
पत्थरों से टकराता हुआ
फूलों से मिलता हुआ
कभी रोया सा,
आंसुओं से सीचता बगिया को मैं,
कभी एक बूंद आंसूं को रूंधता गला मेरा।

मेरी दुनिया मुझे उदास लगती कभी,
कभी इन मुस्कुराहटों, इन उदासियों से
उभरता मैं।
कभी उतरता गहरे समंदर में
फिर उभरता वापस
और यूं हीं लहरों में डूबता-उभरता, मैं।

सांझ ढले जब सूरज सोने जाता
अपने सपनों को पत्थर पर रख
उसका अनुकरण करता मैं,
सुबह सूरज फिर भर अपनी मुठी
सपने वापस करता मुझको
उन्हें फिर अपनी आंखों में
समेट कर खुश होता, ‘मैं’।

आपका अपना
नीतीश राज
सभी को कृष्ण जन्मोत्सव की बधाई।

21 August, 2008

रोज ही देखा है मैंने एक ख्वाब



रोज ही देखा है मैंने एक ख्वाब
तेरा चेहरा, मेरे चेहरे के पास
उस चेहरे का मेरे चेहरे पे झुका होना
चेहरे पर चेहरा झुका होना।



वो तुम्हारा धीरे से मुस्कुरा देना
वो तुम्हारा, इतना पास देख मुझे
घबरा जाना, शर्मा जाना,
मेरा पलकों से तेरी आंखें ढक लेना।




वो मेरी तेज सांसों का
बार-बार तुम्हारे चेहरे से टकराना,
लेना महक तुम्हारी
लपेटे बाहों में तुम्हें,
और देखना
रोज की तरह ही एक ये ख्वाब।



आपका अपना
नीतीश राज

16 August, 2008

क्यों दिल करता है...

क्यों दिल करता है कि कुछ लिखूं
तुमको देखते हुए कुछ लिखूं
ऐसा कुछ जो कि तुम जैसा हो
चंचल, शोख, निर्मल, मोहक।
क्यों दिल करता है याद करूं
उन सारी बातों को
जो हुईं थीं कभी हमारे साथ
अदभुत, प्यारी, विचित्र, रोचक....

क्यों दिल करता है बात करूं फिर वही
जो करता था तब भी हरदम।
लगती थी तुम को अच्छी
हम दोनों की अपनी छोटी सी बात।
आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो साभार-गुगल)

13 August, 2008

पीछे छोड़ आई थी, ‘वो’, मेरे लिए सब



अकेली जिंदगी की उधेड़बुन, और
दो जिंदगी को जोड़ने वाली
फेरों के समय
हाथों से बनी वो गांठ लगी चुन्नी।

वो जो मेरे लिए सारी जिंदगियों को
पीछे छोड़ आई थी
सिर्फ एक जिंदगी के लिए।

उसकी आंखें, लगी रांहों पर
राहों में से निकलती एक राह,
जिसका इंतजार तकती एक राह।

अपनी धुरी को बचाने की एक आस करता, मैं,
उसकी आंखों से मैं, एक ही केंद्र बिंदु की तरह
खींचता मैं असहाय, हारा हुआ अस्तित्व लेकर,
अपने उसी एक बिंदु के साथ
जो तक रहा है राह,
दूसरे की तरफ बढ़ता,
मैं और मेरा बिंदु।


आपका अपना

नीतीश राज

11 August, 2008

हमे है इंतजार उनका....


हम आंख लगाए बैठे हैं
वो आंख गड़ाए बैंठे हैं

हम आस लगाए बैठे है
वो घात लगाए बैठे हैं

हम दीप जलाए बैठे हैं
वो आग जलाए बैठे हैं

हमे है इंतजार उनका
उन्हें भी है, इंतजार उनका

देखना है असर, हमारा लाएगा रंग
या नापाक इरादे उनके

विश्वास हमारा रहेगा जिंदा, या
उठ जाएगा विश्वास हमारा।

(मध्य प्रदेश में कटनी के पास ही एक गांव में मेरा दोस्त रहता है। जब भी मेरा वहां जाना होता तो उसकी दीदी की की ये व्यथा हर रोज शाम ढलत ही शुरू हो जाती थी कि उनके पति जो कि इमानदार हैं आज घर आएंगे भी या नहीं। रो़ड कॉन्ट्रैक्टरों के खिलाफ उन्होंने आरोप लगाया था। जब से ये केस चल रहा था तो दीदी की ये धुक धुकी बनी रहती थी। दीदी की उसी उधेड़बुन पर चंद पंक्तियां।)


आपका अपना
नीतीश राज

09 August, 2008

“अपनी...कुछ निशानी दे दो”



शिकवे और गिले करते रहे हम
अपने आप ही से लड़ते रहे हम,
तुमने भी नहीं कही कुछ अपनी
हमें भी गिला कि न कह सके
कुछ हम अपनी।

इप्तदा से ही इज़हारे दिल किया हमने,
इंतहा तक करार न कर सके तुम।
रहा जिंदगी का सफर कुछ यूं
जैसे कहीं पर जर्जर झूलता पुल,
हर कदम डरता रहा, उस पुल पर
हर आहट से छटपटाता रहा,
हर हादसा सहता रहा वो,
हर आंसू को अपने आगोश में लेता रहा,
कुछ टूटता, बिखरता रहा,

मेरी ही तरह
नदी पर जर्जर झूलता वो पुल।

रास्ते पर रखी निगाहें, इंतजार में तेरे
वक्त तो कुछ गुज़रा, कुछ गुजर रहा है
सिर्फ एक बार, .... एक बार
उस पुल को भी अपनी कुछ निशानी दे दो।

आपका अपना
नीतीश राज

06 August, 2008

“वो भी तो चाहती थी, थाम लूं उसको”


मेरा कोई आज मिला
कुछ इस तरह मुझसे
जैसे,
डूबती नवज मिली हो
जिंदगी से।

लगता है जैसे
बात कल ही की हो।
उसे मनाने के लिए
जिस्म से पहले
हाथ बढ़ाया,
उस रिश्ते की डोर को
थामने के लिए,
जो कुछ दिन पहले
हाथ से छूट गई थी।

वो भी तो चाहती थी
आगे आकर थाम लूं
उसको अपनी बाहों में।
अकेली गुजारी शामों का
हिसाब दूं।
हर उस पल की बात करूं
जब मैं अकेला था
और,
जब हम साथ थे
ख्वाबों में।

हर उस पल की
बात करूं
जो अकेला था
सिर्फ मेरी तरह
अपने में सिमटा हुआ
उसके आने से पहले।
आपका अपना
नीतीश राज

05 August, 2008

डरता हूं मैं, उस मजाक से


अंधेरे में पड़ा मेरा मन
पूछता है मुझसे,
क्यों सैलाब की तरह जलता है
कंदराओं में।

निकल जा बाहर
इस घुटन से
इस तड़प से।

फिर सोचता है
मेरा मन,
निकल गया बाहर
तो उड़ेंगी धूल राहों में।

पूछ कर फासला
मेरी मंजिल का,
उड़या था मजाक किसी ने मेरा,
डरता हूं मैं, उस मजाक से।
कहीं फिर से, उड़े ना मजाक
मेरे ख्यालों-विचारों के गहरे समंदर का।
डरता हूं मैं।
आपका अपना
नीतीश राज