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02 January, 2009

फिसले छलनी से

यह एहसास हुआ है
यूं ही इन दिनों, अचानक,
दुनिया कुछ दिनों में
बीसवीं सदी की केंचुली को
उतार फेंकने वाली है।

हर कोई बीसवीं सदी से
छुटकारा पाने को उतारु है,
जैसे,
कोई, अपने मैले-कुचले कपड़ो से।

मैं तो नहीं था तब
जब आई थी बीसवीं सदी,
कुछ लोग उठा लाए थे,
उन्नीसवीं सदी को साथ अपने
थे उनमें से कुछ
मीर, ग़ालिब, मूमिन, जौंक, मुसहफी।

समय की छलनी में बीसवीं सदी
को छानने बैठा हूं,
छेद कुछ इतने बड़े हो गए
सदी की छलनी के,
मीर भी देखो,
ग़ालिब भी देखो,
फिसल रहे हैं,
इक्कीसवीं सदी की छलनी से।

आपका अपना
नीतीश राज

(सभी के लिए नव वर्ष शुभ हो।)

9 comments:

  1. बहुत ही सुंदर कविता लिखी है आप ने .
    धन्यवाद

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  2. बहुत सही कहा आपने......यथार्थपरक इस सुंदर रचना हेतु साधुवाद.

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  3. सही लिखा आपने सुंदर अभिव्यक्ति है

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  4. क्या बात कही आपने बहुत खूब।

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  5. "समय की छलनी में बीसवीं सदी
    को छानने बैठा हूं..."
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है, बधाई!

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  6. अच्छी कविता है!

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  7. बहुत ही सुंदर कविता ....

    "समय की छलनी में बीसवीं सदी
    को छानने बैठा हूं..."

    यथार्थपरक सुंदर अभिव्यक्ति ...!!

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