यदि पसंद है तो हमसफर बनें

08 May, 2009

कहीं तुम आ तो नहीं गई।



हर आहट, एक-एक आहट
एक दस्तक, कई आवाज़े
दूसरी मंजिल पर पहुंचती
सड़क से गुजरने वाले
रिक्शो पर लगे घुंघरुओं की आवाज़।

दूर से, दूर तक सुनाई देती,
एक-एक आहट।
दूसरी मंजिल पर सुनाई पड़ती
सड़क से गुजरने वालों की आहट, उनकी पदचाप।

हर एक आहट
बुलावा देती,एक भ्रम बनाती
मुझे मजबूर करती उठने पर,
देखने पर अपनी छत से,
सड़क पर कहीं तुम आ तो नहीं गईं।

अपनी गली का वो एक मोड़
जहां पर दो-चार रिक्शेवाले खड़े,
इंतजार करते राहगीरों का,
एकदम मेरी तरह
जो इंतजार करता तुम्हारा,
अपनी छत पर, रेलिंग से लगा हुआ।

गली का दूसरा मोड़,
नुकड़ पर लगी कुछ दुकानें,
अन्दर को जाती एक मोड़,
जिसका छोर कुछ इस तरह दिखाई नहीं पड़ता,
...जिस तरह की तुम।

आपका अपना
नीतीश राज

(बहुत समय बाद आज फिर से शुरुआत की है कुछ शब्दों को पिरोने की। उम्मीद है पहली पेशकश पसंद आई होगी।)

3 comments:

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