यदि पसंद है तो हमसफर बनें

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17 June, 2009

अब सब फसाना है

दोपहर की धूप से बचने
मेरे कमरे मे आना
वो तेरा एक बहाना था।
पास तुम तो थी
वरना सब अफसाना था।

तेरी जुल्फों की छांव में
तेरी गोद में सर रखना
वो तेरा एक बहाना था।
पास तुम तो थी
वरना सब अफसाना था।

मेरे बालों को सहलाना
साथ मेरे हमेशा रहना
वो तेरा एक बहाना था।
पास तुम तो थी
वरना सब अफसाना था।
आज भी वो तपती दोपहर है
आज भी है वो मेरा कमरा
आज भी है एहसास तेरा,
पर...पास नहीं हो तुम,
बस...अब सब फसाना है।

आपका अपना
नीतीश राज

14 May, 2009

वो...नहीं आएगी...



वो आएगी, जरूर आएगी,
उसके आने से पहले
हवा मुझ तक, उसकी महक लाएगी।
जैसे, बच्चे तक,
आती मां की महक।

जब भी कोई आहट होती
दिल कहता,
अब तो तुम ही हो
बिस्तर पर पड़े-पड़े,
दिमाग भी कहता
अब तुम ही हो, तुम ही तो हो।

दरवाजे पर होती आहट
तुम ही तो होगी
पर...ये...हवा...।

हवा सहलाती आंचल को मेरे
कहती मुझसे,
आगोश में आजाओ मेरे
हर महक, हर आहट, तुम्हारी होगी।
हर चिल्मन, हर आंगन तुम्हारा होगा...।

जिसका तुमको है इंतजार
उसे खिलना है
किसी और आंगन में
मत कर इंतजार
वो नहीं आएगी।

आपका अपना
नीतीश राज

10 May, 2009

दबे पांव...दूर कहीं



तुम कहती हो,
तुम्हारे हाथों की लकीरों में मैं नहीं।
मैं कहता हूं,
मेरे मुकद्दर की लकीरें सिर्फ तेरी हैं।

तेरे ख्वाबों में,
मैं ना सही मगर, मेरे ख्वाब में,
सिर्फ तुम ही तुम हो।

तुम गुजर गई, मेरे पास से,
तो यूं लगा मुझे,
कि जिंदगी गुजर गई,
दबे पांव...दूर कहीं।

आपका अपना
नीतीश राज

08 May, 2009

कहीं तुम आ तो नहीं गई।



हर आहट, एक-एक आहट
एक दस्तक, कई आवाज़े
दूसरी मंजिल पर पहुंचती
सड़क से गुजरने वाले
रिक्शो पर लगे घुंघरुओं की आवाज़।

दूर से, दूर तक सुनाई देती,
एक-एक आहट।
दूसरी मंजिल पर सुनाई पड़ती
सड़क से गुजरने वालों की आहट, उनकी पदचाप।

हर एक आहट
बुलावा देती,एक भ्रम बनाती
मुझे मजबूर करती उठने पर,
देखने पर अपनी छत से,
सड़क पर कहीं तुम आ तो नहीं गईं।

अपनी गली का वो एक मोड़
जहां पर दो-चार रिक्शेवाले खड़े,
इंतजार करते राहगीरों का,
एकदम मेरी तरह
जो इंतजार करता तुम्हारा,
अपनी छत पर, रेलिंग से लगा हुआ।

गली का दूसरा मोड़,
नुकड़ पर लगी कुछ दुकानें,
अन्दर को जाती एक मोड़,
जिसका छोर कुछ इस तरह दिखाई नहीं पड़ता,
...जिस तरह की तुम।

आपका अपना
नीतीश राज

(बहुत समय बाद आज फिर से शुरुआत की है कुछ शब्दों को पिरोने की। उम्मीद है पहली पेशकश पसंद आई होगी।)

23 July, 2008

'ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?


रविवार की उस सुबह की याद
आज भी प्यारी लगती है
जब बारिश में भीगती हुई तुम
मेरे तीसरे माले वाले कमरे पर
अपनी भीगती हुई चुनरी को
गीले बालों के साथ
झाड़ते हुए, तेज कदमों से,
सीढ़ी चढ़ते हुए आती थीं।

तुम्हारे आने के साथ ही
मेरा कमरा तुम्हारी महक से,
तुम्हारे अक्स से भर जाता था।
तुम्हारे आने की आहट से
हिलते थे दरवाजे, हल्के से
बताते थे कि आ चुकी हो तुम।

घुमावदार सीढ़ी के सहारे
तीसरे माले तक का सफर
तुम्हारा आते ही, वो सवाल,
‘तुम ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?
मेरी हंसी, तुम्हारे गुस्से को
मेरे प्रति, तुनक प्यार में बदल देती।
और तुम अपनी थकान छुपाए
गीले कपड़ों के साथ, मेरे
सीने से लग जातीं।

आज भी रविवार है,
आज फिर बारिश हो रही है,
वही घुमावदार सीढ़ी हैं,
फिर तीसरे माले की बालकॉनी,
फिर हिला है दरवाजा, हल्के से,
पर आज....
सिर्फ और सिर्फ
वो चुनरी, वो गीले बाल
नहीं है,
वो तुम्हारा प्रश्न नहीं है-
छोड़ क्यों नहीं देते ये तीसरे माले का कमरा....

आपका अपना
नीतीश राज