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23 July, 2008

'ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?


रविवार की उस सुबह की याद
आज भी प्यारी लगती है
जब बारिश में भीगती हुई तुम
मेरे तीसरे माले वाले कमरे पर
अपनी भीगती हुई चुनरी को
गीले बालों के साथ
झाड़ते हुए, तेज कदमों से,
सीढ़ी चढ़ते हुए आती थीं।

तुम्हारे आने के साथ ही
मेरा कमरा तुम्हारी महक से,
तुम्हारे अक्स से भर जाता था।
तुम्हारे आने की आहट से
हिलते थे दरवाजे, हल्के से
बताते थे कि आ चुकी हो तुम।

घुमावदार सीढ़ी के सहारे
तीसरे माले तक का सफर
तुम्हारा आते ही, वो सवाल,
‘तुम ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?
मेरी हंसी, तुम्हारे गुस्से को
मेरे प्रति, तुनक प्यार में बदल देती।
और तुम अपनी थकान छुपाए
गीले कपड़ों के साथ, मेरे
सीने से लग जातीं।

आज भी रविवार है,
आज फिर बारिश हो रही है,
वही घुमावदार सीढ़ी हैं,
फिर तीसरे माले की बालकॉनी,
फिर हिला है दरवाजा, हल्के से,
पर आज....
सिर्फ और सिर्फ
वो चुनरी, वो गीले बाल
नहीं है,
वो तुम्हारा प्रश्न नहीं है-
छोड़ क्यों नहीं देते ये तीसरे माले का कमरा....

आपका अपना
नीतीश राज

6 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता।
    घुघूती बासूती

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  2. बेहद खूबसूरत, नाजुक...बहुत उम्दा...वाह!

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  3. क्या बात है नीतीश जी कमाल का लेखन है.. तस्वीर भी उतनी ही उम्दा है..

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  4. बहुत सुंदर छु लेने वाली कविता लगी यह

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  5. धन्यवाद कुश,
    शब्द मेरे अपने थे और बगल वाली तस्वीर भी मेरी अपनी ही है,
    लेकिन पोस्ट पर लगी तस्वीर उधार ली हुई है। आप ने ये नहीं बताया कि पसंद कौन सी आई है।

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  6. Bahut hi najuk auir khoobsoorat kavita..Aah..achha ahsaas laga.

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