यदि पसंद है तो हमसफर बनें

17 December, 2008

निशान ‘ताज’ की दीवार का



धर्म का ना जात का
हजारों के आघात का
क्यों पनप रहा ये ज़हर
इंसानी जज़्बात का।

करता है छेद लाखों
दिल में मेरे,
जब भी देखता हूं
निशान ‘ताज’ की दीवार का।


आपका अपना
नीतीश राज


(फोटो साभार-गूगल)

02 October, 2008

मेरे चमन को लगी ये किसकी नजर





मेरे चमन को लगी ये किसकी नजर,
किसने फैलाई दहशत की आग,
गुलशन मेरा खामोश कर दिया,
फैला के हर जगह, खौ़फ की हवा।


आज तड़के आए थे सब अपने,
पूछने मेरे दिल का हाल,
अपने ही लगे गुनहगार मुझे,
अपनों पर ही न किया ऐतबार।

ऐ खुदा, ऐ मौला, ऐ परवरदिगार मेरे,
बख्श मेरी आंखों पर, अक्ल की चादर,
कर सकूं, सब अपनों पर यंकी मैं,
कर सकूं खुद पर ऐतबार।


आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो-सभार गुगल)

20 September, 2008

एक कमरा छोटा सा, मेरा अपना

एक कमरा छोटा सा, अपना सा,
कुछ चुनिंदा किताबें
इधर भी, उधर भी,
कुछ पन्ने यहां भी, वहां भी।
एक सपना लिए हुए
कुछ मेरे मन के
कुछ उन के,
जो इसमें पहले रह चुके
उन चुनिंदा लफ्जों के बीच,
मेरा बिस्तर।

बिस्तर पर मैं,
तकिया-चादर लगाए,
सिरहाने से उठता धुआं
एश्ट्रे से, सिगरेट का।
छूता,
उत्तर-दक्षिण वेयतनाम को
बांटता लाल झील को
वहीं, थोड़ा पास ही
बिखरे सिगरेट के
खुले-अधखुले पैकेट।

एक कोना
आज-कल-बरसों की खबरों का।
ठीक जेल में उठे रोटी के अंबार
की तरह रखे अखबार।
दिन-ब-दिन उन पर
चढ़ती धूल की परत,
फिर भी एहसास कराते
अपनी मौजूदगी का।

कुछ ऊंचाई पर लगी रस्सी
अपने उपर सहती बोझ कपड़ों का
और सहती,
उनमें से उठती बदबू को।


एक कमरा छोटा सा, अपना सा
जिसमें रहता था कभी मैं।

आपका अपना

नीतीश राज

(खूब कोशिश की अपनी ही फोटो लगाऊं लेकिन लगा नहीं पाया, अपलोड होने में दिक्कत दे रही थी, तो इसी से काम चलाइए।
फोटो साभार-गूगल)

12 September, 2008

क्या कहूं अनजान हूं पर


क्या कहूं अनजान हूं,
पर जानना चाहता हूं मैं,
जानना चाहता हूं, कि,
तुम क्या सोचती हो?

उस बारे में, जिस बारे में,
मैं, अभी तक अनभिज्ञ हूं
उस पीड़ा के बारे में,
जिसकों सहा है सिर्फ नारी ने।
वो दर्द होता है अपना, पर,
उसकी महक होती सब जगह
उसकी महक से महकता गुलशन,
महकती सारी जमीं
एक जन्म से,
तुम महकी, हम महके
महका सारा संसार।
...............
आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो सभार गुगल)

03 September, 2008

जी लो, जिंदगी एक बार फिर।



तुम चुप क्यों हो,
क्यों हो उदास तुम,
कहां चली गई है हंसी तुम्हारी।

पहले तो हंसती थी तुम,
तुम करती थी खूब बातें,
बोलती, तो चुप ना होती थी तुम।

माना चांद पर दाग है
तुम्हारे चेहरे पर ना था कोई दाग
अब क्यों मुरझा गया है फूल ये।

मेरे लिए ना सही
खुश रहो खुद के लिए
जी लो, जिंदगी एक बार फिर।

आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो साभार-गूगल)

30 August, 2008

ओ... ऊपर वाले कर रहम

हर तरफ हाहाकार, चित्कार
भूख से तड़पते लोग,
खुद को बचाने की तड़प
अपनों को बचाने की जद्दोजहद,
पहले खुद को बचाएं या उनको
या सुनें अपने अंतरमन को,
हर तरफ है तड़प।

गुम हुईं बच्चों की किलकारी
उनके रोने से कांपता है दिल
पर अब तो वो रोते भी नहीं
सिसकियों में जो बदला रुदन
कई दिनों से खाया नहीं कुछ
दूध भी नहीं उतर रहा
बूंद बूंद कर पेट भरे मां
हर जगह हाहाकार मचा।

चारों ओर बस एक ही गूंज
'भूखे हैं खाना दे दो'
'सहा नहीं जाता है अब'
'कोई तो बचा लो हमको'
बचाने वालों की भी, आंखें हैं नम

ऊपर वाला भी रो रहा है
उसके रोने से बरपा है क़हर
हम रो रहे हैं
सिसक रहे हैं
अब तो कर, ओ ऊपर वाले
हम पर रहम।
आपका अपना
नीतीश राज

29 August, 2008

“...तो कोई बात थी”


तेरी जुल्फ मेरे शयानों पर होती
तो कोई बात थी।
तेरा हाथ, मेरे हाथ में होता
तो कोई बात थी।


तुम कदम चंद कदम साथ चली होती
तो कोई बात थी।
मयखाना ना सही, तुम साथ होती
तो कोई बात थी।

आज अकेला चला हूं, गर तुम साथ चलती
तो कोई बात थी।
आपका अपना
नीतीश राज

फोटो साभार-गूगल

27 August, 2008

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?



अक्सर वो अपने से प्रश्न करती,
क्यों, वो कर्कसता को
उलाहनों को, गलतियों को
झिड़की को सहन करती है।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?

जो कि सबकी निगाहों में
अपने पढ़े जाने का,
शरीर के हर अंग को
साढ़ी और ब्लाउज के रंग को
वक्ष के उभार,
उतार-चढ़ाव को
कूल्हों की बनावट को
होठों की रसमयता को
आंखों की चंचलता को,
क्या कोमल गर्भ-गृह का
सिर्फ श्रृंगार है।

जिसे बीज की तैयारी तक
कसी हुई बेल की तरह बढ़ना है,
फिर उसके, जिसको जानती नहीं
अस्तित्व में अकारण खो जाना है,
कोढ़ पर बैठी मक्खी की तरह।


जिस के ऊपर
फुसफुसाहट सुनती
वो नयन-नक्स
वो देह की बनावट
बोझ जो उसका अपना
चाहा हुआ नहीं,
किसी और की दुनिया
के दर्जी की गलत काट के कारण,
उसके सीने पर चढ़ाया गया
अक्सर वो खुद से प्रश्न करती।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?



आपका अपना
नीतीश राज

24 August, 2008

“मैं”



क्या करूं की दिशाहीन सा चलता मैं
कभी लगे की रास्ता मिल गया
पर तभी रास्ते से भटकता, मैं।


रास्ते में मिले कभी पत्थर
तो कभी मिले फूल,
पत्थरों से टकराता हुआ
फूलों से मिलता हुआ
कभी रोया सा,
आंसुओं से सीचता बगिया को मैं,
कभी एक बूंद आंसूं को रूंधता गला मेरा।

मेरी दुनिया मुझे उदास लगती कभी,
कभी इन मुस्कुराहटों, इन उदासियों से
उभरता मैं।
कभी उतरता गहरे समंदर में
फिर उभरता वापस
और यूं हीं लहरों में डूबता-उभरता, मैं।

सांझ ढले जब सूरज सोने जाता
अपने सपनों को पत्थर पर रख
उसका अनुकरण करता मैं,
सुबह सूरज फिर भर अपनी मुठी
सपने वापस करता मुझको
उन्हें फिर अपनी आंखों में
समेट कर खुश होता, ‘मैं’।

आपका अपना
नीतीश राज
सभी को कृष्ण जन्मोत्सव की बधाई।

21 August, 2008

रोज ही देखा है मैंने एक ख्वाब



रोज ही देखा है मैंने एक ख्वाब
तेरा चेहरा, मेरे चेहरे के पास
उस चेहरे का मेरे चेहरे पे झुका होना
चेहरे पर चेहरा झुका होना।



वो तुम्हारा धीरे से मुस्कुरा देना
वो तुम्हारा, इतना पास देख मुझे
घबरा जाना, शर्मा जाना,
मेरा पलकों से तेरी आंखें ढक लेना।




वो मेरी तेज सांसों का
बार-बार तुम्हारे चेहरे से टकराना,
लेना महक तुम्हारी
लपेटे बाहों में तुम्हें,
और देखना
रोज की तरह ही एक ये ख्वाब।



आपका अपना
नीतीश राज

16 August, 2008

क्यों दिल करता है...

क्यों दिल करता है कि कुछ लिखूं
तुमको देखते हुए कुछ लिखूं
ऐसा कुछ जो कि तुम जैसा हो
चंचल, शोख, निर्मल, मोहक।
क्यों दिल करता है याद करूं
उन सारी बातों को
जो हुईं थीं कभी हमारे साथ
अदभुत, प्यारी, विचित्र, रोचक....

क्यों दिल करता है बात करूं फिर वही
जो करता था तब भी हरदम।
लगती थी तुम को अच्छी
हम दोनों की अपनी छोटी सी बात।
आपका अपना
नीतीश राज
(फोटो साभार-गुगल)

13 August, 2008

पीछे छोड़ आई थी, ‘वो’, मेरे लिए सब



अकेली जिंदगी की उधेड़बुन, और
दो जिंदगी को जोड़ने वाली
फेरों के समय
हाथों से बनी वो गांठ लगी चुन्नी।

वो जो मेरे लिए सारी जिंदगियों को
पीछे छोड़ आई थी
सिर्फ एक जिंदगी के लिए।

उसकी आंखें, लगी रांहों पर
राहों में से निकलती एक राह,
जिसका इंतजार तकती एक राह।

अपनी धुरी को बचाने की एक आस करता, मैं,
उसकी आंखों से मैं, एक ही केंद्र बिंदु की तरह
खींचता मैं असहाय, हारा हुआ अस्तित्व लेकर,
अपने उसी एक बिंदु के साथ
जो तक रहा है राह,
दूसरे की तरफ बढ़ता,
मैं और मेरा बिंदु।


आपका अपना

नीतीश राज

11 August, 2008

हमे है इंतजार उनका....


हम आंख लगाए बैठे हैं
वो आंख गड़ाए बैंठे हैं

हम आस लगाए बैठे है
वो घात लगाए बैठे हैं

हम दीप जलाए बैठे हैं
वो आग जलाए बैठे हैं

हमे है इंतजार उनका
उन्हें भी है, इंतजार उनका

देखना है असर, हमारा लाएगा रंग
या नापाक इरादे उनके

विश्वास हमारा रहेगा जिंदा, या
उठ जाएगा विश्वास हमारा।

(मध्य प्रदेश में कटनी के पास ही एक गांव में मेरा दोस्त रहता है। जब भी मेरा वहां जाना होता तो उसकी दीदी की की ये व्यथा हर रोज शाम ढलत ही शुरू हो जाती थी कि उनके पति जो कि इमानदार हैं आज घर आएंगे भी या नहीं। रो़ड कॉन्ट्रैक्टरों के खिलाफ उन्होंने आरोप लगाया था। जब से ये केस चल रहा था तो दीदी की ये धुक धुकी बनी रहती थी। दीदी की उसी उधेड़बुन पर चंद पंक्तियां।)


आपका अपना
नीतीश राज

09 August, 2008

“अपनी...कुछ निशानी दे दो”



शिकवे और गिले करते रहे हम
अपने आप ही से लड़ते रहे हम,
तुमने भी नहीं कही कुछ अपनी
हमें भी गिला कि न कह सके
कुछ हम अपनी।

इप्तदा से ही इज़हारे दिल किया हमने,
इंतहा तक करार न कर सके तुम।
रहा जिंदगी का सफर कुछ यूं
जैसे कहीं पर जर्जर झूलता पुल,
हर कदम डरता रहा, उस पुल पर
हर आहट से छटपटाता रहा,
हर हादसा सहता रहा वो,
हर आंसू को अपने आगोश में लेता रहा,
कुछ टूटता, बिखरता रहा,

मेरी ही तरह
नदी पर जर्जर झूलता वो पुल।

रास्ते पर रखी निगाहें, इंतजार में तेरे
वक्त तो कुछ गुज़रा, कुछ गुजर रहा है
सिर्फ एक बार, .... एक बार
उस पुल को भी अपनी कुछ निशानी दे दो।

आपका अपना
नीतीश राज

06 August, 2008

“वो भी तो चाहती थी, थाम लूं उसको”


मेरा कोई आज मिला
कुछ इस तरह मुझसे
जैसे,
डूबती नवज मिली हो
जिंदगी से।

लगता है जैसे
बात कल ही की हो।
उसे मनाने के लिए
जिस्म से पहले
हाथ बढ़ाया,
उस रिश्ते की डोर को
थामने के लिए,
जो कुछ दिन पहले
हाथ से छूट गई थी।

वो भी तो चाहती थी
आगे आकर थाम लूं
उसको अपनी बाहों में।
अकेली गुजारी शामों का
हिसाब दूं।
हर उस पल की बात करूं
जब मैं अकेला था
और,
जब हम साथ थे
ख्वाबों में।

हर उस पल की
बात करूं
जो अकेला था
सिर्फ मेरी तरह
अपने में सिमटा हुआ
उसके आने से पहले।
आपका अपना
नीतीश राज

05 August, 2008

डरता हूं मैं, उस मजाक से


अंधेरे में पड़ा मेरा मन
पूछता है मुझसे,
क्यों सैलाब की तरह जलता है
कंदराओं में।

निकल जा बाहर
इस घुटन से
इस तड़प से।

फिर सोचता है
मेरा मन,
निकल गया बाहर
तो उड़ेंगी धूल राहों में।

पूछ कर फासला
मेरी मंजिल का,
उड़या था मजाक किसी ने मेरा,
डरता हूं मैं, उस मजाक से।
कहीं फिर से, उड़े ना मजाक
मेरे ख्यालों-विचारों के गहरे समंदर का।
डरता हूं मैं।
आपका अपना
नीतीश राज

29 July, 2008

"तुम आज भी हसीन हो"

कौन कहता है कि तुम हसीन नहीं,
तुम आज भी हसीन हो,
मेरी आंखों से एक बार देखो तो।

अब भी दीवाना हूं मैं,
उन अदाओं का, जुल्फों का,
उन आंखों का, उस मुस्कुराहट का,
जिसने तब भी लूटा था
मेरी रातों की नींद को।
कौन कहता है कि तुम हसीन नहीं।

आज भी अच्छी लगती हैं
तुम्हारी बातें मुझे,
तुम्हारा वो खोलकर दुपट्टा लेना,
वो खिलखिलाकर हंसना।
तब भी तो तुम यूं ही थी,
जब पहली बार देखकर
दिया था तुमको करार अपना।
कौन कहता है कि तुम हसीन नहीं।

तब भी तुम चांद नहीं थी,
आज भी नहीं हो,
तब भी ये ही कहता था,
आज भी कहता हूं, पर
चांद जैसी तो हो।

तुम आज भी उतनी ही हसीन हो।

(आज हमारी महबूबा कम संगनी ने कहा,....जब भी देखती हूं इस कंप्यूटर से चिपके रहते हो...अब तो बिल्कुल ध्यान ही नहीं देते....हां, अब मैं 'उतनी' हसीन नहीं रह गई हूं...ना... मार डाला...हमने सोचा बेटा आज तो फंस गए....अरे भई, ये तो सीधे-सीधे चोट थी हम पर... इस बार कुछ नहीं बोले तो घर में महाभारत शुरू होजाएगी और भाड़ में जाएगा शुकून... तुरंत बोले ......."देखो सिर्फ तुम्हारे लिए ही तो लिखते हैं...चाहे तो देख लो"...फिर बन गई ये रचना जो अब है आपके सामने, सिर्फ हमारी उनके लिए)
आपका अपना
नीतीश राज

27 July, 2008

"अपराधबोध"


आज मुझे हुआ क्या है
किस एहसास तले
दबा है मन।
क्यों किया मैंने वो
जो ना था करना,
जो न किया, पहले कभी।

क्यों पहुँचाई ठेस उसे
क्यों दोहराया सवाल अपना
क्यों किया बेचैन उसे
क्यों हुआ बेचैन खुद।

गई रात भी,
बना के याद अपनी,
शायद आए वो सुबह
जब मेरा सामान,
लेकर कोई, बेचैन,
धुली सुबह के साथ
पहुंचाए मुझ तक,
शायद...आए वो ही।
जिसका है इंतजार मुझे....।
आपका अपना
नीतीश राज

26 July, 2008

वो ‘चांद’ फिर से...



अधूरे चांद को देखकर
कभी-कभी लगता है,
रिश्ते भी अक्सर, ऐसे ही अधूरे रहते हैं?
और फिर कभी कभार, यूं ही,
हो जाते हैं पूरे,
उस चांद की तरह।

फिर अचानक ही,
जिंदगी के पूरे अंबर पर,
वो अलग दिखाई देते हैं,
रिश्ते....
फिर शुरू होता है, वो सफर
रिश्तों को बचाने का।

रिश्तों को बचाने और संवारने की आस
अंबर पर पूरे चांद को सजाने का ख्वाब,
कभी चांद पूरा, तो कभी रिश्ते, और
कभी रिश्ते अधूरे, तो कभी चांद।

इसी में फंस कर रह जाता है इंसान
और अधूरा हो जाता है
रिश्तों के साथ,
वो 'चांद', एक बार फिर से।


आपका अपना
नीतीश राज

25 July, 2008

किसी गैर राह पे या......



अंधेरा अपनी तमाम हसीन महक के साथ
एक दोस्त की तरह आकर
मेरे पास में बैठ जाता है,
और......
अपने तमाम दुखों के बावजूद
उस मंजर का जिक्र करता है,
जहां नदी निरंतर
तारों का अक्स लेकर आगे बढ़ती है,
मेरे सपनों को रौंदती हुई
मेरे विचारों के साथ लहराती हुई।
राह में पत्थरों से थपेड़े खाता
मेरा ‘मन’ लहू-लुहान
मुझसे ही पूछता है,
बता……
चलना है किसी गैर राह पे, या
जूझना है इसी खून से भरे संसार में
अपने....विचारों और सपनों के साथ।


आपका अपना
नीतीश राज

23 July, 2008

'ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?


रविवार की उस सुबह की याद
आज भी प्यारी लगती है
जब बारिश में भीगती हुई तुम
मेरे तीसरे माले वाले कमरे पर
अपनी भीगती हुई चुनरी को
गीले बालों के साथ
झाड़ते हुए, तेज कदमों से,
सीढ़ी चढ़ते हुए आती थीं।

तुम्हारे आने के साथ ही
मेरा कमरा तुम्हारी महक से,
तुम्हारे अक्स से भर जाता था।
तुम्हारे आने की आहट से
हिलते थे दरवाजे, हल्के से
बताते थे कि आ चुकी हो तुम।

घुमावदार सीढ़ी के सहारे
तीसरे माले तक का सफर
तुम्हारा आते ही, वो सवाल,
‘तुम ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?
मेरी हंसी, तुम्हारे गुस्से को
मेरे प्रति, तुनक प्यार में बदल देती।
और तुम अपनी थकान छुपाए
गीले कपड़ों के साथ, मेरे
सीने से लग जातीं।

आज भी रविवार है,
आज फिर बारिश हो रही है,
वही घुमावदार सीढ़ी हैं,
फिर तीसरे माले की बालकॉनी,
फिर हिला है दरवाजा, हल्के से,
पर आज....
सिर्फ और सिर्फ
वो चुनरी, वो गीले बाल
नहीं है,
वो तुम्हारा प्रश्न नहीं है-
छोड़ क्यों नहीं देते ये तीसरे माले का कमरा....

आपका अपना
नीतीश राज

18 July, 2008

उन बूढ़ी आंखों के लिए....

मेरी हर भावना कहती है
कर लोगी तुम, करना है तुमको
करना ही होगा तुमको।


वो बूढ़ी आंखें, जिसे अब
कुछ कम दिखाई देता है
पर देखना है उनको,
तुमको, उस पर्दे पर,
जहां देखने की चाह थी उनको
उन प्यासी आंखों को
जो दूर से बैठी आज भी
देखती है तुमको, तुम्हारी आंखों को।

झिलमिल करता ‘वो’ सितारा
टिमटिम करता ‘वो’ सितारा
अब भी आंखों में थकान लिए
पूरी रात का जागा हुआ
विश्वास के साथ देखता
तुम्हारी ओर,
उसी चमक के साथ
उसी विश्वास के साथ
जो मेरी भावनाओं का विश्वास है
उस बूढ़ी आंखों का विश्वास है
उस झिलमिलाते सितारे का विश्वास है
तुम्हारी आंखों के लिए
करोगी ना..., करोगी तुम उस विश्वास को पूरा,
जो है मेरी आंखों में
उस बूढ़ी आंखों में
उस सितारे की आंख में
करोगी तुम उस विश्वास को पूरा
करोगी ना......।

तुम करोगी जानते हैं हम,
यह विश्वास है, हमारा विश्वास
मत झपकाना अपनी पलकों को
किसी भी गलती पर।
देख लेना समझ लेना
हमारी आंखों को, कि
झपक कर ही क्या
बन्द हो रखी है वो आंखें
उस विश्वास के लिए,
उन आंखों के खुलने तक
जिसे करना है तुमको अब पूरा।।

आपका अपना
नीतीश राज

कभी तो, एक बार


देर से हवा का एक झौंका
मुझे बार-बार सहलाता,
झकझोरता हुआ चला जाता है।

कैसे समझाऊं उस झौंके को
कैसे बताऊं उसे मन की कशिश
कि आज, आना है तुमको।

वो आएगी उस झौंके की तरह
जिस ने सुबह से मुझे
कर रखा है परेशान।

यूं...कब से बैठा हुआ हूं,
पड़ा उस झौंके के पशोपेश में
जो मुझे कभी,
ठंडक पहुंचा जाता है,
तो तभी, याद दिला जाता है,
कभी जब, धूप में खड़े होकर मैंने
इंतजार किया था, उस झौंके का।

रोज़...इस जगह पे खड़े होकर
सोचा है उस बेनाम प्यार को।
जो आएगा कभी तो
मेहंदी की तरह...मेरे हाथों पर,
मेरे जिस्म पर,
रच जाएगा, बस जाएगा, बस... कभी तो, एक बार।।


आपका अपना,
नीतीश राज

तेरा एक पल....



तेरा पास होना ही काफी है


मेरे चमन को महकाने के लिए,


तेरी एक बात ही काफी है


मुझे तेरा बनाने के लिए।


तेरे ख्याल में जी रहा हूं इस कदर,
तेरी याद ही काफी है अपनाने के लिए।
तेरी नराजगी ही काफी है,
मुझे तड़पाने के लिए।


तेरी उखड़ी हुई एक बात ही काफी है,


मुझे अंदर से हिलाने के लिए।


तेरी आंख से छलकता एक आंसू,


काफी है मुझे रुलाने के लिए।


तेरी एक मुस्कुराहट ही काफी है,


मेरे दिन को बनाने के लिए।


इसी उम्मीद पर जी रहा हूं,


तेरी जिन्दगी का, एक पल ही काफी है


मुझे, मुझसे मिलाने के लिए।।



आपका अपना,
नीतीश राज

सांप्रदायिकता

गमों का संसार फैला है
आग का अंबार फैला है,
आज फिर किसी शहर में
सांप्रदायिकता का बुखार फैला है।

फिर जल रहा है एक शहर
उलझ के धर्मों के आडंबर में,
देखो, मेरे देश का एक राज्य
धधक रहा है शोलों में।
धूं-धूं कर जल रहा है,
घर मेरा,
भेंट चढ़ा राजनीति की।
मेरे घर के सामने जल रहा
उस नेता का भी घर
जिसने धधकाई थी चिंगारी दिल में।

इस पाक भूमि को,
किया है नापाक
अपने इरादों से
छिड़का है जहर जिसमेंअब,
जल रहा है खुद,आज,
उसका भी, अपना कोई
उसी कूंचे में,जहां जला था
कुछ देर पहले, मेरा कोई।

आपका अपना,
नीतीश राज

सबसे ख़तरनाक होता है...

(चे ग्वेरा)

सबसे ख़तरनाक होता है,
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और
काम से लौटकर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।।

-अवतार सिंह पाश

17 July, 2008

स्वागत है आपका


आज से मेरी हर कविता आपको इस ब्लॉग पर पढ़ने को मिलेंगी।
अब से पहले मेरी कविता, आप मेरे वैचारिक ब्लॉग मेरे सपने मेरे अपने में पढ़पाते थे पर अब से इस ब्लॉग पर मेरी कविताएं आप सभी को बोर करेंगी। क्योंकि एक ही समय में दो अलग-अलग ढंग से कोई भी नहीं चाहता बोर होना, मैं भी नहीं चाहता। एक जगह में गद्य-पद्य दोनों हों, आप गए पद्य पढ़ने अच्छा नहीं लगा तो चले गद्य पढ़ने वो भी अच्छा नहीं लगा तो बुरा लगता है। इसलिए आप सभी की सहुलियत के लिए 'बोरनामा' अब दो जगह।

तैयार हो जाइए।
पढ़ने के लिए...
कविताएं अभी बाकीं है...
जाइएगा नहीं...

आपका अपना
नीतीश राज