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20 September, 2008

एक कमरा छोटा सा, मेरा अपना

एक कमरा छोटा सा, अपना सा,
कुछ चुनिंदा किताबें
इधर भी, उधर भी,
कुछ पन्ने यहां भी, वहां भी।
एक सपना लिए हुए
कुछ मेरे मन के
कुछ उन के,
जो इसमें पहले रह चुके
उन चुनिंदा लफ्जों के बीच,
मेरा बिस्तर।

बिस्तर पर मैं,
तकिया-चादर लगाए,
सिरहाने से उठता धुआं
एश्ट्रे से, सिगरेट का।
छूता,
उत्तर-दक्षिण वेयतनाम को
बांटता लाल झील को
वहीं, थोड़ा पास ही
बिखरे सिगरेट के
खुले-अधखुले पैकेट।

एक कोना
आज-कल-बरसों की खबरों का।
ठीक जेल में उठे रोटी के अंबार
की तरह रखे अखबार।
दिन-ब-दिन उन पर
चढ़ती धूल की परत,
फिर भी एहसास कराते
अपनी मौजूदगी का।

कुछ ऊंचाई पर लगी रस्सी
अपने उपर सहती बोझ कपड़ों का
और सहती,
उनमें से उठती बदबू को।


एक कमरा छोटा सा, अपना सा
जिसमें रहता था कभी मैं।

आपका अपना

नीतीश राज

(खूब कोशिश की अपनी ही फोटो लगाऊं लेकिन लगा नहीं पाया, अपलोड होने में दिक्कत दे रही थी, तो इसी से काम चलाइए।
फोटो साभार-गूगल)

30 August, 2008

ओ... ऊपर वाले कर रहम

हर तरफ हाहाकार, चित्कार
भूख से तड़पते लोग,
खुद को बचाने की तड़प
अपनों को बचाने की जद्दोजहद,
पहले खुद को बचाएं या उनको
या सुनें अपने अंतरमन को,
हर तरफ है तड़प।

गुम हुईं बच्चों की किलकारी
उनके रोने से कांपता है दिल
पर अब तो वो रोते भी नहीं
सिसकियों में जो बदला रुदन
कई दिनों से खाया नहीं कुछ
दूध भी नहीं उतर रहा
बूंद बूंद कर पेट भरे मां
हर जगह हाहाकार मचा।

चारों ओर बस एक ही गूंज
'भूखे हैं खाना दे दो'
'सहा नहीं जाता है अब'
'कोई तो बचा लो हमको'
बचाने वालों की भी, आंखें हैं नम

ऊपर वाला भी रो रहा है
उसके रोने से बरपा है क़हर
हम रो रहे हैं
सिसक रहे हैं
अब तो कर, ओ ऊपर वाले
हम पर रहम।
आपका अपना
नीतीश राज

29 August, 2008

“...तो कोई बात थी”


तेरी जुल्फ मेरे शयानों पर होती
तो कोई बात थी।
तेरा हाथ, मेरे हाथ में होता
तो कोई बात थी।


तुम कदम चंद कदम साथ चली होती
तो कोई बात थी।
मयखाना ना सही, तुम साथ होती
तो कोई बात थी।

आज अकेला चला हूं, गर तुम साथ चलती
तो कोई बात थी।
आपका अपना
नीतीश राज

फोटो साभार-गूगल

27 August, 2008

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?



अक्सर वो अपने से प्रश्न करती,
क्यों, वो कर्कसता को
उलाहनों को, गलतियों को
झिड़की को सहन करती है।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?

जो कि सबकी निगाहों में
अपने पढ़े जाने का,
शरीर के हर अंग को
साढ़ी और ब्लाउज के रंग को
वक्ष के उभार,
उतार-चढ़ाव को
कूल्हों की बनावट को
होठों की रसमयता को
आंखों की चंचलता को,
क्या कोमल गर्भ-गृह का
सिर्फ श्रृंगार है।

जिसे बीज की तैयारी तक
कसी हुई बेल की तरह बढ़ना है,
फिर उसके, जिसको जानती नहीं
अस्तित्व में अकारण खो जाना है,
कोढ़ पर बैठी मक्खी की तरह।


जिस के ऊपर
फुसफुसाहट सुनती
वो नयन-नक्स
वो देह की बनावट
बोझ जो उसका अपना
चाहा हुआ नहीं,
किसी और की दुनिया
के दर्जी की गलत काट के कारण,
उसके सीने पर चढ़ाया गया
अक्सर वो खुद से प्रश्न करती।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?



आपका अपना
नीतीश राज