कुछ चुनिंदा किताबें
इधर भी, उधर भी,
कुछ पन्ने यहां भी, वहां भी।
कुछ मेरे मन के
कुछ उन के,
जो इसमें पहले रह चुके
उन चुनिंदा लफ्जों के बीच,
मेरा बिस्तर।
बिस्तर पर मैं,
तकिया-चादर लगाए,
सिरहाने से उठता धुआं
एश्ट्रे से, सिगरेट का।
छूता,
उत्तर-दक्षिण वेयतनाम को
बांटता लाल झील को
वहीं, थोड़ा पास ही
बिखरे सिगरेट के
खुले-अधखुले पैकेट।
एक कोना
आज-कल-बरसों की खबरों का।
ठीक जेल में उठे रोटी के अंबार
की तरह रखे अखबार।
दिन-ब-दिन उन पर
चढ़ती धूल की परत,
फिर भी एहसास कराते
अपनी मौजूदगी का।
कुछ ऊंचाई पर लगी रस्सी
अपने उपर सहती बोझ कपड़ों का
और सहती,
उनमें से उठती बदबू को।
एक कमरा छोटा सा, अपना सा
जिसमें रहता था कभी मैं।
आपका अपना
नीतीश राज
(खूब कोशिश की अपनी ही फोटो लगाऊं लेकिन लगा नहीं पाया, अपलोड होने में दिक्कत दे रही थी, तो इसी से काम चलाइए।
फोटो साभार-गूगल)
Bahut badiya.
ReplyDeletehmm! badhiya hai!
ReplyDeleteबहुत खूब. आपके कमरे की सैर भी हो गयी इसी बहाने से.
ReplyDeleteवाह भई, बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteAatma ko abhibhut karane wali ek uttam rachna.
ReplyDeleteमजा आ गया आप का कमरा देख कर.
ReplyDeleteधन्यवाद
bahut hi apnapan liye hue aatmik varnan laga....choti choti cheezen bhi kabhi hriday me ghar kar jaaati hai..........
ReplyDeleteजीवंत कर रहे हैं आपके कमरे को यह लफ्ज़
ReplyDeleteek-ek shabd ki ungli thame yun laga,jaise chhote se kamre se awgat ho gai.....jab aatma se likha hai to sab aatmik hai
ReplyDeletebahut badhiya. bhaiapka kamara post me chaa gaya . dhanyawad..
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