क्या करूं की दिशाहीन सा चलता मैं
कभी लगे की रास्ता मिल गया
पर तभी रास्ते से भटकता, मैं।
कभी लगे की रास्ता मिल गया
पर तभी रास्ते से भटकता, मैं।
रास्ते में मिले कभी पत्थर
तो कभी मिले फूल,
पत्थरों से टकराता हुआ
फूलों से मिलता हुआ
कभी रोया सा,
आंसुओं से सीचता बगिया को मैं,
कभी एक बूंद आंसूं को रूंधता गला मेरा।
तो कभी मिले फूल,
पत्थरों से टकराता हुआ
फूलों से मिलता हुआ
कभी रोया सा,
आंसुओं से सीचता बगिया को मैं,
कभी एक बूंद आंसूं को रूंधता गला मेरा।
मेरी दुनिया मुझे उदास लगती कभी,
कभी इन मुस्कुराहटों, इन उदासियों से
उभरता मैं।
कभी उतरता गहरे समंदर में
फिर उभरता वापस
और यूं हीं लहरों में डूबता-उभरता, मैं।
कभी इन मुस्कुराहटों, इन उदासियों से
उभरता मैं।
कभी उतरता गहरे समंदर में
फिर उभरता वापस
और यूं हीं लहरों में डूबता-उभरता, मैं।
सांझ ढले जब सूरज सोने जाता
अपने सपनों को पत्थर पर रख
उसका अनुकरण करता मैं,
सुबह सूरज फिर भर अपनी मुठी
सपने वापस करता मुझको
उन्हें फिर अपनी आंखों में
समेट कर खुश होता, ‘मैं’।
अपने सपनों को पत्थर पर रख
उसका अनुकरण करता मैं,
सुबह सूरज फिर भर अपनी मुठी
सपने वापस करता मुझको
उन्हें फिर अपनी आंखों में
समेट कर खुश होता, ‘मैं’।
आपका अपना
नीतीश राज
सभी को कृष्ण जन्मोत्सव की बधाई।
जन्माष्टमी की वधाई
ReplyDeleteसादगी से भरी कविता
ReplyDeleteसच्चे दिल से आत्माभिव्यक्ति।
नीतिश जी,एक बात और,
आपने विपश्यना के लिए योग्यता और खर्च के बारे में पूछा था। योग्यता- साधना में (सुविधानुसार किसी भी आसन में) बैठे रहने का धीरज, जो अभ्यास से आ जाएगा। साथ में चुप रहने का धीरज। खर्च- मात्र आने जाने का / खाना- रहना मुफ्त। शेष्ा मेरे अगली पोस्ट से वहॉं का मेरा अनुभव जाने।
जन्माष्टमी की बधाई !
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति ! धन्यवाद !
धन्यवाद जीतेंद्र भगत जी अगली पोस्ट के इंतजार में ...।
ReplyDeleteबहुत सुंदर! आपको भी जन्माष्टमी की बधाई!
ReplyDeleteमैं की बहुत ही बढिया व्याख्या की है !
ReplyDeleteबहुत बढिया कविता ! शुभकामनाएं !
सांझ ढले जब सूरज सोने जाता
ReplyDeleteअपने सपनों को पत्थर पर रख
उसका अनुकरण करता मैं,
सुबह सूरज फिर भर अपनी मुठी
सपने वापस करता मुझको
उन्हें फिर अपनी आंखों में
समेट कर खुश होता, ‘मैं’।
जन्माष्टमी की बधाई ..सुंदर लगी आपकी यह कविता
आपको जन्माष्टमी पर्व की
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनाएं
बहुत ही सुन्दर कविता
सुबह सूरज फिर भर अपनी मुठी
ReplyDeleteसपने वापस करता मुझको
उन्हें फिर अपनी आंखों में
समेट कर खुश होता, ‘मैं’।
" beautiful, very nice expressions, liked reading it ya"
Regards
सफल कविता
ReplyDeleteभावुक रचना अति सन्दर
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