यदि पसंद है तो हमसफर बनें

29 July, 2008

"तुम आज भी हसीन हो"

कौन कहता है कि तुम हसीन नहीं,
तुम आज भी हसीन हो,
मेरी आंखों से एक बार देखो तो।

अब भी दीवाना हूं मैं,
उन अदाओं का, जुल्फों का,
उन आंखों का, उस मुस्कुराहट का,
जिसने तब भी लूटा था
मेरी रातों की नींद को।
कौन कहता है कि तुम हसीन नहीं।

आज भी अच्छी लगती हैं
तुम्हारी बातें मुझे,
तुम्हारा वो खोलकर दुपट्टा लेना,
वो खिलखिलाकर हंसना।
तब भी तो तुम यूं ही थी,
जब पहली बार देखकर
दिया था तुमको करार अपना।
कौन कहता है कि तुम हसीन नहीं।

तब भी तुम चांद नहीं थी,
आज भी नहीं हो,
तब भी ये ही कहता था,
आज भी कहता हूं, पर
चांद जैसी तो हो।

तुम आज भी उतनी ही हसीन हो।

(आज हमारी महबूबा कम संगनी ने कहा,....जब भी देखती हूं इस कंप्यूटर से चिपके रहते हो...अब तो बिल्कुल ध्यान ही नहीं देते....हां, अब मैं 'उतनी' हसीन नहीं रह गई हूं...ना... मार डाला...हमने सोचा बेटा आज तो फंस गए....अरे भई, ये तो सीधे-सीधे चोट थी हम पर... इस बार कुछ नहीं बोले तो घर में महाभारत शुरू होजाएगी और भाड़ में जाएगा शुकून... तुरंत बोले ......."देखो सिर्फ तुम्हारे लिए ही तो लिखते हैं...चाहे तो देख लो"...फिर बन गई ये रचना जो अब है आपके सामने, सिर्फ हमारी उनके लिए)
आपका अपना
नीतीश राज

27 July, 2008

"अपराधबोध"


आज मुझे हुआ क्या है
किस एहसास तले
दबा है मन।
क्यों किया मैंने वो
जो ना था करना,
जो न किया, पहले कभी।

क्यों पहुँचाई ठेस उसे
क्यों दोहराया सवाल अपना
क्यों किया बेचैन उसे
क्यों हुआ बेचैन खुद।

गई रात भी,
बना के याद अपनी,
शायद आए वो सुबह
जब मेरा सामान,
लेकर कोई, बेचैन,
धुली सुबह के साथ
पहुंचाए मुझ तक,
शायद...आए वो ही।
जिसका है इंतजार मुझे....।
आपका अपना
नीतीश राज

26 July, 2008

वो ‘चांद’ फिर से...



अधूरे चांद को देखकर
कभी-कभी लगता है,
रिश्ते भी अक्सर, ऐसे ही अधूरे रहते हैं?
और फिर कभी कभार, यूं ही,
हो जाते हैं पूरे,
उस चांद की तरह।

फिर अचानक ही,
जिंदगी के पूरे अंबर पर,
वो अलग दिखाई देते हैं,
रिश्ते....
फिर शुरू होता है, वो सफर
रिश्तों को बचाने का।

रिश्तों को बचाने और संवारने की आस
अंबर पर पूरे चांद को सजाने का ख्वाब,
कभी चांद पूरा, तो कभी रिश्ते, और
कभी रिश्ते अधूरे, तो कभी चांद।

इसी में फंस कर रह जाता है इंसान
और अधूरा हो जाता है
रिश्तों के साथ,
वो 'चांद', एक बार फिर से।


आपका अपना
नीतीश राज

25 July, 2008

किसी गैर राह पे या......



अंधेरा अपनी तमाम हसीन महक के साथ
एक दोस्त की तरह आकर
मेरे पास में बैठ जाता है,
और......
अपने तमाम दुखों के बावजूद
उस मंजर का जिक्र करता है,
जहां नदी निरंतर
तारों का अक्स लेकर आगे बढ़ती है,
मेरे सपनों को रौंदती हुई
मेरे विचारों के साथ लहराती हुई।
राह में पत्थरों से थपेड़े खाता
मेरा ‘मन’ लहू-लुहान
मुझसे ही पूछता है,
बता……
चलना है किसी गैर राह पे, या
जूझना है इसी खून से भरे संसार में
अपने....विचारों और सपनों के साथ।


आपका अपना
नीतीश राज

23 July, 2008

'ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?


रविवार की उस सुबह की याद
आज भी प्यारी लगती है
जब बारिश में भीगती हुई तुम
मेरे तीसरे माले वाले कमरे पर
अपनी भीगती हुई चुनरी को
गीले बालों के साथ
झाड़ते हुए, तेज कदमों से,
सीढ़ी चढ़ते हुए आती थीं।

तुम्हारे आने के साथ ही
मेरा कमरा तुम्हारी महक से,
तुम्हारे अक्स से भर जाता था।
तुम्हारे आने की आहट से
हिलते थे दरवाजे, हल्के से
बताते थे कि आ चुकी हो तुम।

घुमावदार सीढ़ी के सहारे
तीसरे माले तक का सफर
तुम्हारा आते ही, वो सवाल,
‘तुम ये तीसरे माले का कमरा छोड़ क्यों नहीं देते’?
मेरी हंसी, तुम्हारे गुस्से को
मेरे प्रति, तुनक प्यार में बदल देती।
और तुम अपनी थकान छुपाए
गीले कपड़ों के साथ, मेरे
सीने से लग जातीं।

आज भी रविवार है,
आज फिर बारिश हो रही है,
वही घुमावदार सीढ़ी हैं,
फिर तीसरे माले की बालकॉनी,
फिर हिला है दरवाजा, हल्के से,
पर आज....
सिर्फ और सिर्फ
वो चुनरी, वो गीले बाल
नहीं है,
वो तुम्हारा प्रश्न नहीं है-
छोड़ क्यों नहीं देते ये तीसरे माले का कमरा....

आपका अपना
नीतीश राज

18 July, 2008

उन बूढ़ी आंखों के लिए....

मेरी हर भावना कहती है
कर लोगी तुम, करना है तुमको
करना ही होगा तुमको।


वो बूढ़ी आंखें, जिसे अब
कुछ कम दिखाई देता है
पर देखना है उनको,
तुमको, उस पर्दे पर,
जहां देखने की चाह थी उनको
उन प्यासी आंखों को
जो दूर से बैठी आज भी
देखती है तुमको, तुम्हारी आंखों को।

झिलमिल करता ‘वो’ सितारा
टिमटिम करता ‘वो’ सितारा
अब भी आंखों में थकान लिए
पूरी रात का जागा हुआ
विश्वास के साथ देखता
तुम्हारी ओर,
उसी चमक के साथ
उसी विश्वास के साथ
जो मेरी भावनाओं का विश्वास है
उस बूढ़ी आंखों का विश्वास है
उस झिलमिलाते सितारे का विश्वास है
तुम्हारी आंखों के लिए
करोगी ना..., करोगी तुम उस विश्वास को पूरा,
जो है मेरी आंखों में
उस बूढ़ी आंखों में
उस सितारे की आंख में
करोगी तुम उस विश्वास को पूरा
करोगी ना......।

तुम करोगी जानते हैं हम,
यह विश्वास है, हमारा विश्वास
मत झपकाना अपनी पलकों को
किसी भी गलती पर।
देख लेना समझ लेना
हमारी आंखों को, कि
झपक कर ही क्या
बन्द हो रखी है वो आंखें
उस विश्वास के लिए,
उन आंखों के खुलने तक
जिसे करना है तुमको अब पूरा।।

आपका अपना
नीतीश राज

कभी तो, एक बार


देर से हवा का एक झौंका
मुझे बार-बार सहलाता,
झकझोरता हुआ चला जाता है।

कैसे समझाऊं उस झौंके को
कैसे बताऊं उसे मन की कशिश
कि आज, आना है तुमको।

वो आएगी उस झौंके की तरह
जिस ने सुबह से मुझे
कर रखा है परेशान।

यूं...कब से बैठा हुआ हूं,
पड़ा उस झौंके के पशोपेश में
जो मुझे कभी,
ठंडक पहुंचा जाता है,
तो तभी, याद दिला जाता है,
कभी जब, धूप में खड़े होकर मैंने
इंतजार किया था, उस झौंके का।

रोज़...इस जगह पे खड़े होकर
सोचा है उस बेनाम प्यार को।
जो आएगा कभी तो
मेहंदी की तरह...मेरे हाथों पर,
मेरे जिस्म पर,
रच जाएगा, बस जाएगा, बस... कभी तो, एक बार।।


आपका अपना,
नीतीश राज

तेरा एक पल....



तेरा पास होना ही काफी है


मेरे चमन को महकाने के लिए,


तेरी एक बात ही काफी है


मुझे तेरा बनाने के लिए।


तेरे ख्याल में जी रहा हूं इस कदर,
तेरी याद ही काफी है अपनाने के लिए।
तेरी नराजगी ही काफी है,
मुझे तड़पाने के लिए।


तेरी उखड़ी हुई एक बात ही काफी है,


मुझे अंदर से हिलाने के लिए।


तेरी आंख से छलकता एक आंसू,


काफी है मुझे रुलाने के लिए।


तेरी एक मुस्कुराहट ही काफी है,


मेरे दिन को बनाने के लिए।


इसी उम्मीद पर जी रहा हूं,


तेरी जिन्दगी का, एक पल ही काफी है


मुझे, मुझसे मिलाने के लिए।।



आपका अपना,
नीतीश राज

सांप्रदायिकता

गमों का संसार फैला है
आग का अंबार फैला है,
आज फिर किसी शहर में
सांप्रदायिकता का बुखार फैला है।

फिर जल रहा है एक शहर
उलझ के धर्मों के आडंबर में,
देखो, मेरे देश का एक राज्य
धधक रहा है शोलों में।
धूं-धूं कर जल रहा है,
घर मेरा,
भेंट चढ़ा राजनीति की।
मेरे घर के सामने जल रहा
उस नेता का भी घर
जिसने धधकाई थी चिंगारी दिल में।

इस पाक भूमि को,
किया है नापाक
अपने इरादों से
छिड़का है जहर जिसमेंअब,
जल रहा है खुद,आज,
उसका भी, अपना कोई
उसी कूंचे में,जहां जला था
कुछ देर पहले, मेरा कोई।

आपका अपना,
नीतीश राज

सबसे ख़तरनाक होता है...

(चे ग्वेरा)

सबसे ख़तरनाक होता है,
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और
काम से लौटकर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।।

-अवतार सिंह पाश

17 July, 2008

स्वागत है आपका


आज से मेरी हर कविता आपको इस ब्लॉग पर पढ़ने को मिलेंगी।
अब से पहले मेरी कविता, आप मेरे वैचारिक ब्लॉग मेरे सपने मेरे अपने में पढ़पाते थे पर अब से इस ब्लॉग पर मेरी कविताएं आप सभी को बोर करेंगी। क्योंकि एक ही समय में दो अलग-अलग ढंग से कोई भी नहीं चाहता बोर होना, मैं भी नहीं चाहता। एक जगह में गद्य-पद्य दोनों हों, आप गए पद्य पढ़ने अच्छा नहीं लगा तो चले गद्य पढ़ने वो भी अच्छा नहीं लगा तो बुरा लगता है। इसलिए आप सभी की सहुलियत के लिए 'बोरनामा' अब दो जगह।

तैयार हो जाइए।
पढ़ने के लिए...
कविताएं अभी बाकीं है...
जाइएगा नहीं...

आपका अपना
नीतीश राज