यदि पसंद है तो हमसफर बनें

21 May, 2009

कहां फना होगया....।



कहां फना होगया....।
वो ढलती शामें
जब आती थी शबाब पर
तब होता था मिलना
हमारा-तुम्हारा।

कहां खो गया....।
वो ढलती रातें
जब होती थी उफान पर
वो छलकाना जाम
हमारा-तुम्हारा।

कहां गुम हो गया....।
लालिमा लिए आसमां
ढलती रात के साए में
तेरे आंगन में, होता था साथ
हमारा-तुम्हारा।

‘राज’ कहां फना हो गया
साथ हमारा-तुम्हारा।

आपका अपना
नीतीश राज

20 May, 2009

तेरे सिवा कोई और नहीं...

तेरा साथ रहा है ऐसे
विष रस भरा कनक घर जैसे
सारी दुनिया कहे जहर है
मैं पी जाऊं मीरा जैसे।

प्यार किया है मैंने ऐसे
राधा, श्याम को चाहे जैसे,
विरह में तेरे जलती हूं ऐसे
बिना राम के सीता जैसे।

तेरे सिवा कोई और नहीं है,
और किसी को चाहूं कैसे।

(ये कविता मेरी निजी डायरी में लिखी हुई थी। ये रचना इसमें कैसे आई पता नहीं क्योंकि उसमें मेरी लिखी रचना ही होती है। ये कब लिखी गई मुझे तो ये भी याद नहीं।)

आपका अपना
नीतीश राज

16 May, 2009

फिर आज मिले, बिना आहट



मिले तो हैं, पहले भी हम,
फिर आज मिले, बिना आहट,
जिंदगी और हम।

जिंदगी ने पूछा मुझसे,
आकर दबे पांव।
क्यों उदास बैठा,
कहां फंसी तेरी,
जिंदगी की नाव?

मैं, एक भंवर की तरह
लाखों सवालों से घिरा,
जिंदगी की तलाश में
भटकता रहा,
मंजिल की राह में।

कब होगी मुकम्मल
ख्वाहिश संग तलाश मेरी
फिर आज मिले, बिना आहट,
जिंदगी और हम।


आपका अपना
नीतीश राज

14 May, 2009

वो...नहीं आएगी...



वो आएगी, जरूर आएगी,
उसके आने से पहले
हवा मुझ तक, उसकी महक लाएगी।
जैसे, बच्चे तक,
आती मां की महक।

जब भी कोई आहट होती
दिल कहता,
अब तो तुम ही हो
बिस्तर पर पड़े-पड़े,
दिमाग भी कहता
अब तुम ही हो, तुम ही तो हो।

दरवाजे पर होती आहट
तुम ही तो होगी
पर...ये...हवा...।

हवा सहलाती आंचल को मेरे
कहती मुझसे,
आगोश में आजाओ मेरे
हर महक, हर आहट, तुम्हारी होगी।
हर चिल्मन, हर आंगन तुम्हारा होगा...।

जिसका तुमको है इंतजार
उसे खिलना है
किसी और आंगन में
मत कर इंतजार
वो नहीं आएगी।

आपका अपना
नीतीश राज

12 May, 2009

समय की पहचान



आसमान में सूरज अपनी
बिना आहट की गती से चलता हुआ,
वहीं, अन्दर कमरे में,
घड़ी की सुईयां आहट करती हुईं,
सन्नाटे को चीरती हुई,
टक...टक...टक...
आसमान से गिरती दूरियों को भेदती
गर्म तबे की लौ,
सुइयां टक...टक...करती हुई
दोनों निरंतर चलते हुए
मार्गदर्शित करते,
समय की पहचान बनाते।

आपका अपना
नीतीश राज

10 May, 2009

दबे पांव...दूर कहीं



तुम कहती हो,
तुम्हारे हाथों की लकीरों में मैं नहीं।
मैं कहता हूं,
मेरे मुकद्दर की लकीरें सिर्फ तेरी हैं।

तेरे ख्वाबों में,
मैं ना सही मगर, मेरे ख्वाब में,
सिर्फ तुम ही तुम हो।

तुम गुजर गई, मेरे पास से,
तो यूं लगा मुझे,
कि जिंदगी गुजर गई,
दबे पांव...दूर कहीं।

आपका अपना
नीतीश राज

08 May, 2009

कहीं तुम आ तो नहीं गई।



हर आहट, एक-एक आहट
एक दस्तक, कई आवाज़े
दूसरी मंजिल पर पहुंचती
सड़क से गुजरने वाले
रिक्शो पर लगे घुंघरुओं की आवाज़।

दूर से, दूर तक सुनाई देती,
एक-एक आहट।
दूसरी मंजिल पर सुनाई पड़ती
सड़क से गुजरने वालों की आहट, उनकी पदचाप।

हर एक आहट
बुलावा देती,एक भ्रम बनाती
मुझे मजबूर करती उठने पर,
देखने पर अपनी छत से,
सड़क पर कहीं तुम आ तो नहीं गईं।

अपनी गली का वो एक मोड़
जहां पर दो-चार रिक्शेवाले खड़े,
इंतजार करते राहगीरों का,
एकदम मेरी तरह
जो इंतजार करता तुम्हारा,
अपनी छत पर, रेलिंग से लगा हुआ।

गली का दूसरा मोड़,
नुकड़ पर लगी कुछ दुकानें,
अन्दर को जाती एक मोड़,
जिसका छोर कुछ इस तरह दिखाई नहीं पड़ता,
...जिस तरह की तुम।

आपका अपना
नीतीश राज

(बहुत समय बाद आज फिर से शुरुआत की है कुछ शब्दों को पिरोने की। उम्मीद है पहली पेशकश पसंद आई होगी।)